Monday, 12 May 2014

Astravakra Maha geetha

आपने बताया कि प्रेम के द्वारा सत्य को उपलब्ध हुआ जा सकता है। कृपया बताएं क्या इसके लिए ध्यान जरूरी है?
फिर प्रेम का तुम अर्थ ही न समझे।
फिर प्रेम से कुछ और समझ गए। बिना ध्यान के प्रेम तो संभव ही नहीं है। प्रेम भी ध्यान का एक ढंग है। फिर तुमने प्रेम से कुछ अपना ही अर्थ ले लिया। तुम्हारे प्रेम से अगर सत्य मिलता होता तो मिल ही गया होता। तुम्हारा प्रेम तो तुम कर ही रहे हो; पत्नी से, बच्चे से, पिता से, मां से, मित्रों से। ऐसा प्रेम तो तुमने जन्म—जन्म किया है। ऐसे प्रेम से सत्य मिलता होता तो मिल ही गया होता।
मैं किसी और ही प्रेम की बात कर रहा हूं। तुम देह की भाषा ही समझते हो। इसलिए जब मैं कुछ कहता हूं तुम अपनी देह की भाषा में अनुवाद कर लेते हो; वहीं भूल हो जाती है। प्रेम का मेरे लिए वही अर्थ है जो प्रार्थना का है।
एक पुरानी कहानी तुमसे कहूं—झेन कथा है। एक झेन सदगुरु के बगीचे में कद्दू लगे थे। सुबह—सुबह गुरु बाहर आया तो देखा, कद्दूओ में बड़ा झगड़ा और विवाद मचा है। कद्दू ही ठहरे! उसने कहा : ‘अरे कद्दूओ यह क्या कर रहे हो? आपस में लड़ते हो !’ वहा दो दल हो गए थे कद्दूओं में और मारधाड़ की नौबत थी। झेन गुरु ने कहा ‘कद्दूओ, एक—दूसरे को प्रेम करो।’ उन्होंने कहा ‘यह हो ही नहीं सकता। दुश्मन को प्रेम करें? यह हो कैसे सकता है !’ तो झेन गुरु ने कहा, ‘फिर ऐसा करो, ध्यान करो।’ कदुओं ने कहा. ‘हम कद्दू हैं, हम ध्यान कैसे करें ?’ तो झेन गुरु ने ‘कहा : ‘देखो—भीतर मंदिर में बौद्ध भिक्षुओं की कतार ध्यान करने बैठी थी—देखो ये कद्दू इतने कद्दू ध्यान कर रहे हैं।’ बौद्ध भिक्षुओं के सिर तो घुटे होते हैं, कदुओं जैसे ही लगते हैं।’तुम भी इसी भांति बैठ जाओ।’ पहले तो कद्दू हंसे, लेकिन सोचा ‘गुरु ने कभी कहा भी नहीं; मान ही लें, थोड़ी देर बैठ जाएं।’ जैसा गुरु ने कहा वैसे ही बैठ गए—सिद्धासन में पैर मोड़ कर आंखें बंद करके, रीढ़ सीधी करके। ऐसे बैठने से थोड़ी देर में शांत होने लगे।
सिर्फ बैठने से आदमी शांत हो जाता है। इसलिए झेन गुरु तो ध्यान का नाम ही रख दिये हैं. झाझेन। झाझेन का अर्थ होता है. खाली बैठे रहना, कुछ करना न।
कद्दू बैठे—बैठे शांत होने लगे, बड़े हैरान हुए, बड़े चकित भी हुए! ऐसी शांति कभी जानी न थी।
चारों तरफ एक अपूर्व आनंद का भाव लहरें लेने लगा। फिर गुरु आया और उसने कहा : ‘अब एक काम और करो, अपने— अपने सिर पर हाथ रखो।’ हाथ सिर पर रखा तो और चकित हो गए। एक विचित्र अनुभव आया कि वहा तो किसी बेल से जुड़े हैं। और जब सिर उठा कर देखा तो वह बेल एक ही है, वहां दो बेलें न थीं, एक ही बेल में लगे सब कद्दू थे। कदुओं ने कहा : ‘हम भी कैसे मूर्ख! हम तो एक ही के हिस्से हैं, हम तो सब एक ही हैं, एक ही रस बहता है हमसे—और हम लड़ते थे।’ तो गुरु ने कहा. ‘अब प्रेम करो। अब तुमने जान ?? कि एक ही हो, कोई पराया नहीं। एक का ही विस्तार है।’
वह जहां से कदुओं ने पकड़ा अपने सिर पर, उसी को योगी सातवां चक्र कहते हैं : सहस्रार। हिंदू वहीं चोटी बढ़ाते हैं। चोटी का मतलब ही यही है कि वहा से हम एक ही बेल से जुड़े हैं। एक ही परमात्मा है। एक ही सत्ता, एक अस्तित्व, एक ही सागर लहरें ले रहा है। वह जो पास में तुम्हारे लहर दिखाई पड़ती है, भिन्न नहीं, अभिन्न है; तुमसे अलग नहीं, गहरे में तुमसे जुड़ी है। सारी लहरें संयुक्त हैं।
तुमने कभी एक बात खयाल की? तुमने कभी सागर में ऐसा देखा कि एक ही लहर उठी हो और सारा सागर शांत हो? नहीं, ऐसा नहीं होता। तुमने कभी ऐसा देखा, वृक्ष का एक ही पत्ता हिलता हो और सारा वृक्ष मौन खड़ा हो, हवाएं न हों? जब हिलता है तो पूरा वृक्ष हिलता है। और जब सागर में लहरें उठती हैं तो अनंत उठती हैं, एक लहर नहीं उठती। क्योंकि एक लहर तो हो ही नहीँ सकती। तुम सोच सकते हो कि एक मनुष्य हो सकता है पृथ्वी पर? असंभव है। एक तो हो ही नहीं सकता। हम तो एक ही सागर की लहरें हैं, अनेक होने में हम प्रगट हो रहे हैं। जिस दिन यह अनुभव होता है, उस दिन प्रेम का जन्म होता है।
प्रेम का अर्थ है : अभिन्न का बोध हुआ, अद्वैत का बोध हुआ। शरीर तो अलग— अलग दिखाई पड ही रहे हैं, कद्दू तो अलग— अलग हैं ही, लहरें तो ऊपर से अलग—अलग दिखाई पड़ ही रही हैं— भीतर से आत्मा एक है।
प्रेम का अर्थ है. जब तुम्हें किसी में और अपने बीच एकता का अनुभव हुआ। और ऐसा नहीं है कि तुम्हें जब यह एकता का अनुभव होगा तो एक और तुम्हारे बीच ही होगा; यह अनुभव ऐसा है कि हुआ कि तुम्हें तत्‍क्षण पता चलेगा कि सभी एक हैं। भ्रांति टूटी तो वृक्ष, पहाड़—पर्वत, नदी—नाले, आदमी—पुरुष, पशु —पक्षी, चांद—तारे सभी में एक ही कैप रहा है। उस एक के कंपन को जानने का नाम प्रेम है। प्रेम प्रार्थना है। लेकिन तुम जिसे प्रेम समझे हो वह तो देह की भूख है; वह तो प्रेम का धोखा है वह तो देह ने तुम्हें चकमा दिया है।
मांगती हैं भूखी इंद्रियां
भूखी इंद्रियों से भीख!
और किससे तुम मांगते हो भीख, यह भी कभी तुमने सोचा? —जो तुमसे भीख मांग रहा है। भिखारी भिखारी के सामने भिक्षा—पात्र लिए खड़े हैं। फिर तृप्ति नहीं होती तो आश्चर्य कैसा? किससे तुम मांग रहे हो? वह तुमसे मांगने आया है। तुम पत्नी से मांग रहे हो, पत्नी तुमसे मांग रही है; तुम बेटे से मांग रहे हो, बेटा तुमसे मांग रहा है। सब खाली’ हैं, रिक्त हैं। देने को कुछ भी नहीं है; सब मांग रहे हैं। भिखमंगों की जमात है।
मांगती हैं भूखी इंद्रियाँ
भूखी इंद्रियों से भीख
मान लिया है स्खलन
को ही तृप्ति का क्षण!
नहीं होने देता विमुक्त
इस मरीचिका से अघोरी मन
बदल—बदल कर मुखौटा
ठगता है चेतना का चिंतन
होते ही पटाक्षेप, बिखर जाएगी
अनमोल पंचभूतो की भीड़।
यह तुमने जिसे अपना होना समझा है, यह तो पंचभूतो की भीड़ है। यह तो —हवा, पानी, आकाश तुममें मिल गए हैं। यह तुमने जिसे अपनी देह समझा है, यह तो केवल संयोग है; यह तो बिखर जाएगा। तब जो बचेगा इस संयोग के बिखर जाने पर, उसको पहचानो, उसमें डूबो, उसमें डुबकी लगाओ। वहीं से प्रेम उठता है। और उसमें डुबकी लगाने का ढंग ध्यान है। अगर तुमने ध्यान की बात ठीक से समझ ली तो प्रेम अपने— आप जीवन में उतरेगा या प्रेम की समझ ली तो ध्यान उतरेगा—ये एक ही बात को कहने के लिए दो शब्द हैं। ध्यान से समझ में आता हो तो ठीक, अन्यथा प्रेम। प्रेम से समझ में आता हो तो ठीक, अन्यथा ध्यान। लेकिन दोनों अलग नहीं हैं।
अकबर शिकार को गया था। जंगल में राह भूल गया, साथियों से बिछड़ गया। सांझ होने लगी, सूरज ढलने लगा, अकबर डरा हुआ था। कहा रुकेगा रात! जंगल में खतरा था, भाग रहा था। तभी उसे याद आया कि सांझ का वक्त है, प्रार्थना करनी जरूरी है। नमाज का समय हुआ तो बिछा कर अपनी चादर नमाज पढ़ने लगा। जब वह नमाज पढ़ रहा था तब एक स्त्री भागती हुई, अल्हड़ स्त्री—उसके नमाज के वस्त्र पर से पैर रखती हुई, उसको धक्का देती हुई वह झुका था, गिर पड़ा। वह भागती हुई निकल गई।
अकबर को बड़ा क्रोध आया। सम्राट नमाज पढ़ रहा है और इस अभद्र युवती को इतना भी बोध नहीं है! जल्दी—जल्दी नमाज पूरी की, भागा घोड़े पर, पकड़ा स्त्री को। कहा : ‘बदतमीज है! कोई भी नमाज पढ़ रहा हो, प्रार्थना कर रहा हो तो इस तरह तो अभद्र व्यवहार नहीं करना चाहिए। फिर मैं सम्राट हूं! सम्राट नमाज पढ़ रहा है और तूने इस तरह का व्यवहार किया।’
उसने कहा. ‘ क्षमा करें, मुझे पता नहीं कि आप वहा थे। मुझे पता नहीं कि कोई नमाज पढ़ रहा था। लेकिन सम्राट, एक बात पूछनी है। मैं अपने प्रेमी से मिलने जा रही हूं तो मुझे कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है। मेरा प्रेमी राह देखता होगा तो मेरे तो प्राण वहा अटके हैं। तुम परमात्मा की प्रार्थना कर रहे थे, मेरा धक्का तुम्हें पता चल गया! यह कैसी प्रार्थना? यह तो अभी प्रेम भी नहीं है, यह प्रार्थना कैसी? तुम लवलीन न थे, तुम मंत्रमुग्ध न थे, तुम डूबे न थे, तो झूठा स्वांग क्यों रच रहे थे? जो परमात्मा के सामने खड़ा हो, उसे तो सब भूल जाएगा। कोई तुम्हारी गर्दन भी उतार देता तलवार से तो भी पता न चलता तो प्रार्थना। मुझे तो कुछ भी याद नहीं। क्षमा करें!’
अकबर ने अपनी आत्मकथा में घटना लिखवाई है और कहा है कि उस दिन मुझे बड़ी चोट पड़ी। सच में ही, यह भी कोई प्रार्थना है? यह तो अभी प्रेम भी नहीं।
प्रेम का ही विकास, आत्यंतिक विकास, प्रार्थना है।
अगर तुम्हें किसी व्यक्ति के भीतर परमात्मा का अनुभव होने लगे और किसी के भीतर तुम्हें अपनी ही झलक मिलने लगे तो प्रेम की किरण फूटी। तुम जिसे अभी प्रेम कहते हो, वह तो मजबूरी है। उसमें प्रार्थना की सुवास नहीं है। उसमें तो भूखी इंद्रियों की दुर्गंध है।
लहर सागर का नहीं श्रृंगार
उसकी विकलता है।
गंध कलिका का नहीं उदगार
उसकी विकलता है।
कूक कोयल की नहीं मनुहार
उसकी विकलता है।
गान गायक का नहीं व्यापार
उसकी विकलता है।
राग वीणा की नहीं झंकार
उसकी विकलता है।
अभी तो तुम जिसे प्रेम कहते हो, वह विकलता है। वह तो मजबूरी है, वह तो पीड़ा है। अभी तुम संतप्त हो। अभी तुम भूखे हो। अभी तुम चाहते हो कोई सहारा मिल जाए। अभी तुम चाहते हो कहीं कोई नशा मिल जाए। इसे मैंने प्रेम नहीं कहा। प्रेम तो जागरण है। विकलता नहीं, विक्षिप्तता नहीं। प्रेम तो परम जाग्रत दशा है। उसे ध्यान कहो।
अगर तुमने प्रेम की मेरी बात ठीक से समझी तो यह प्रश्न उठेगा ही नहीं कि अगर प्रेम से सत्य मिल सकता है तो फिर ध्यान की क्या जरूरत है? प्रेम से सत्य मिलता है तभी जब प्रेम ही ध्यान का एक रूप होता है, उसके पहले नहीं।
दूसरी तरह के लोग भी हैं, वे भी आ कर मुझसे पूछते हैं कि अगर ध्यान से सत्य मिल सकता है तो फिर प्रेम की कोई जरूरत है? उनसे भी मैं यही कहता हूं कि अगर तुमने मेरे ध्यान की बात समझी तो यह प्रश्न पूछोगे नहीं। जिसको ध्यान जगने लगा, प्रेम तो जगेगा ही।
बुद्ध ने कहा है : जहां—जहॉ समाधि है, वहां —वहा करुणा है। करुणा छाया है समाधि की।
चैतन्य ने कहा है. जहां—जहां प्रेम, जहां—जहां प्रार्थना, वहां—वहां ध्यान। ध्यान छाया है प्रेम की। ये तो कहने के ही ढंग हैं। जैसे तुम्हारी छाया तुमसे अलग नहीं की जा सकती, ऐसे ही प्रेम और ध्यान को अलग नहीं किया जा सकता। तुम किसको छाया कहते हो, इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। ये तो पद्धतियां हैं।
दो पद्धतियां हैं सत्य को खोजने की। जो है, उसे जानने के दो ढंग हैं—या तो ध्यान में तटस्थ हो जाओ, या प्रेम में लीन हो जाओ। या तो प्रेम में इतने डूब जाओ कि तुम मिट जाओ, सत्य ही बचे; या ध्यान में इतने जाग जाओ कि सब खो जाए, तुम ही बचो। एक बच जाए किसी भी दिशा से। जहां एक बच रहे, बस सत्य आ गया। कैसे तुम उस एक तक पहुंचे, ‘मैं’ को मिटा कर पहुंचे कि ‘तू’ को मिटा कर पहुंचे, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता है।
लेकिन मन बड़ा बेईमान है। अगर मैं ध्यान करने को कहता हूं तो वह पूछता है ‘प्रेम से नहीं होगा?’ क्योंकि ध्यान करने से बचने का कोई रास्ता चाहिए। प्रेम से हो सकता हो तो ध्यान से तो बचें फिलहाल, फिर देखेंगे! फिर जब मैं प्रेम की बात कहता हूं, तो तुम पूछते हो : ‘ ध्यान से नहीं हो सकेगा?’ तब तुम प्रेम से बचने की फिक्र करने लगते हो। तुम मिटना नहीं चाहते—और बिना मिटे कोई उपाय नहीं; बिना मिटे कोई गति नहीं।
हम भी सुकरात हैं अहदे—नौ के
तस्नालब ही न मर जाएं यारो
जहर हो या मय—आतशीं हो
कोई जामे—शहादत तो आए।
कोई मरने का मौका तो आए। हिम्मतवर खोजी तो कहता हैं.
हम भी सुकरात हैं अहदे —नौ के
हम भी सत्य के खोजी हैं सुकरात जैसे। अगर जहर पीने से मिलता हो सत्य, तो हम तैयार हैं। मय— आतशीं पीने से मिलता हो तो हम तैयार हैं। विष पीने से मिलता हो या शराब पीने से मिलता हो, हम तैयार हैं।
कोई जामे—शहादत तो आए।
कोई शहीद होने का, मिटने का, कुर्बान होने का मौका तो आए।
मैं तुम्हारे लिए शहादत का मौका हूं। तुम बचाव न खोजो। ध्यान से मरना हो ध्यान से मरो, प्रेम से मरना हो प्रेम से मरो—मरो जरूर! कहीं तो मरो, कहीं तो मिटो! तुम्हारा होना ही अड़चन है। तुम्हारी मृत्यु ही परमात्मा से मिलन होगी।
सत्य की खोज को ऐसा मत सोचना जैसे धन की खोज है कि तुम गए और धन खोज कर आ गए और तिजोडिया भर लीं। सत्य की खोज बड़ी अन्यथा है। तुम गए—तुम गए ही। तुम कभी लौटोगे न, सत्य लौटेगा! ऐसा नहीं एं कि सत्य को तुम मुट्ठियों में भर कर ले आओगे, तिजोडियो में रख लोगे। तुम कभी सत्य के मालिक न हो सकोगे। सत्य पर किसी की कोई मालकियत नहीं हो सकती। जब तक तुम्हें मालिक होने का नशा सवार है, तब तक सत्य तुम्हें मिलेगा नहीं। जिस दिन तुम चरणों में गिर जाओगे, विसर्जित हो जाओगे, तुम कहोगे ‘मैं नहीं हूं—उसी क्षण सत्य है। तुम सत्य को न खोज पाओगे; तुम मिटोगे तो सत्य मिलेगा। तुम्हारा होना बाधा है।
तो ऐसे बचते मत रहो। मैं ध्यान की कहूं तो तुम प्रेम की कहो, मैं प्रेम की कहूं तो तुम ध्यान की कहो—ऐसा पात—पात फुदकते न रहो। ऐसे ही तो जनम—जनम तुमने गंवाए।
मेरे साथ कठिनाई है थोड़ी। अगर तुम बुद्ध के पास होते तो बच सकते थे, क्योंकि बुद्ध ध्यान की बात कहते, प्रेम की बात नहीं कहते। तुम कह सकते थे : मेरा मार्ग तो प्रेम है। तुम उपाय खोज लेते। तुम चैतन्य के पास बच सकते थे, क्योंकि चैतन्य प्रेम की बात कहते; तुम कहते कि हमारा उपाय तो ध्यान है। तुम मुझसे न बच कर भाग सकोगे। तुम कहो प्रेम से मरेंगे—मैं कहता हूं : चलो।’ ध्यान से मरना है’—मैं कहता हूं : ध्यान से मरो। मरना मूल्यवान है।
इसलिए तुम अगर मेरे साथ उलझ गए हो तो शहीद हुए बिना चलेगा नहीं। शहादत का मौका आ ही गया है। देर — अबेर कर सकते हो, थोड़ी—बहुत देर यहां—वहां उलझाए रख सकते हो, लेकिन ज्यादा देर नहीं। फिर इस देर— अबेर में तुम कोई सुख भी नहीं पा रहे हो। सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं है। बिना सत्य को जाने सुख हो भी कैसे सकता है? सुख तो सत्य की ही सुरभि है, उसकी ही सुगंध है। सुख तो सत्य का ही प्रकाश है।
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APRIL 3, 2014

Mother

THE VIRTUE OF BEING A MOTHER...
Today is a very special day to me: Not alone is it my 44th birthday but it is Mothers Day. Today I want to share my heart's knowing with you about the role that each of us have to play to become World Mothers and Fathers to bring healing and transformation to this world.
There is a saying in one of the scriptures which states that only God knows the heart of a woman. Even if it is a verse from an ancient text, I find that it is relevant to the times we live in. The foundation of the World Mother image is the feminine principle, which is all about virtue...virtues like mercy, humility, compassion, love, forgiveness, tolerance, inner peace, passion and patience. Virtues like these are exactly what the world need today. Both the feminine and masculine principles are to be found in each of us but it is this one principle, the principle of virtue, which will do the most service in today's world. Because I am a women my character has been predisposed to these qualities from birth in one way or the other. These virtues are part of who we as women are, whether it is awakened or asleep, and it is part of the preparation for the fulfillment of each our responsibilities to our spiritual family - the whole world.
In a world where women have been seen traditionally as someone's wife, mother, daughter, or sister, why would a woman choose to follow a spiritual path? Perhaps because, deep inside every woman has a longing to “be” someone in her own right — fully aware of herself, confident and in control. When we talk of spiritual power, we are in fact referring to the original power of the self to be whole and independent — free from the web of domination and suppression, free from the need to exist for someone else's sake. Many women's inner power and goddess are asleep and need to be awakened, thus, my focus on women empowerment from the inside out. In many areas of society, a woman's view is not really heard or accepted. This is one of the reasons why women are many times more receptive to the love of God. The feeling is that God knows and understand the feelings of her heart and the power of her soul. God knows about a woman's greatness and virtues, especially the qualities of mercy, love and truth...God knows that a woman can use these qualities not just for herself or her immediate family, but for the whole world. He knows that if she wishes, she can be more than just the mother of one family - she can be a mother of the world - the family of humanity.
God knows there is nothing as important as a mother. The mother is the one who sustains the family. God knows that the mothers are the real awakeners and the real teachers, the real gurus of the world with deep inner wisdom if it becomes awakened. In these times of darkness, greed, sorrow and intolerance, a woman's role is more important than ever before and is a very powerful one indeed. If she stays in her own self-respect and self-love and takes power from the Source, she can give the message of hope, love and transformation in a very impactful way. Not only can she lead others with her light and powerful love out of their own darkness and stickiness but she can lift them into the boat of Truth.
There are three qualities that come quite easily to a woman: tolerance, real mercy and the power of truth. These qualities serve to produce a very big, open and generous heart - the heart of a world mother. The image of the world mother is significant in today's world. She is the one whose only desire is to help others move forward - no matter what the challenges that surround her...
For a period of time in my life I had the thought that this is 'a man's world" and that we as women must make more sacrifices and adopt many of the masculine virtues and at a time of my life I did - but not anymore as I know the healing and transformation power of being a woman and being softly powerful. In today's world, true success will require constant courage, resilience, authenticity, humility, wisdom and complete honesty on our part. Each of us will need to develop the virtue of courage and when we feel afraid, lonely, misunderstood or discouraged; then we must take a moment of silence and go deep within our hearts and connect with our soul and with God, and evoke courage. Then we must surrender to God (whatever you may call Him) and have the faith that each of us have the solution - that we do have the answers - that we do what must be done and never let ourselves be influenced by what others might be thinking. Just turn inwards, emerge the wisdom that is within, and then do something with it.
Women become spiritual leaders when they themselves acknowledge they have the capacity and necessary attributes to play such a role. The change of consciousness needed is to move away from unworthy feelings and attitudes and to see the greatness contained within the self. Feminine qualities such as love, tolerance, compassion, understanding and humility are qualities of leadership. They are also needed for spiritual progress, for without them it would be impossible to come close to God and attain self-realisation. Every human being possesses those qualities but women are more easily and naturally able to tap them, for feelings of love and devotion are often more natural to women, combined with a profound sense of discipline and order. A true leader leads through example.
Women know how to serve and how to give. Often the notion of service or of putting others in front has been seen as a sign of weakness or lack of power. Quite the opposite is true. The ability to bow before others, with true humility, is the sign of the greatness of a soul who has conquered ego. However this quality of giving to others must also be balanced with qualities of courage, determination, clear thinking and self-respect. Too often, women have a tendency to give to others and neglect their own spiritual needs. It is one of the major reasons women find themselves depleted and lacking in spiritual power.
The foundation for assuming spiritual leadership is thus a change of consciousness. Overcoming the huge physical, religious and sociological barriers which have prevented women becoming spiritual leaders can only be done through the development of self-respect. The quality of self-respect comes from the knowledge and experience of the eternal self which is beyond social, cultural or physical identity. The eternal self or soul is pure, peaceful and complete with divine and spiritual qualities. When women touch this inner, eternal core, they gain the courage to play the part they are capable of. Spiritual power is an expression of the inherent qualities of the spirit and has nothing to do with gender or physical limitations. Feelings of domination or suppression occur when there is the awareness of superiority or inferiority. Feelings of equality, however, manifest when there is the consciousness of spirit or soul. These feelings and attitudes can be expressed in actions with positive results.
Dear friends, human life is so valuable, thus, it is important to live it out with purpose. If you can keep yourself in learning mode and allow the women in your life to become who they are meant to be - world mothers - you have served humanity well. Allow her to be alive and to BE herself. In the words of Jospeh Campbell, "People say that we are all seeking a meaning for life. I think what we are seeking is an experience of being alive...Actually feeling the rapture of being alive..." The very center of your heart is where your life begins - the most beautiful place on Earth..
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APRIL 3, 2014

Friday, 9 May 2014

REALISATION























REALISATION
This is to be realised. The Buddha said emphatically: ‘This is a Truth to be realised here and now.’ We do not have to wait until we die to find out if it’s all true - this teaching is for living human beings like ourselves. Each one of us has to realise it. I may tell you about it and encourage you to do it but I can’t make you realise it!
Don’t think of it as something remote or beyond your ability. When we talk about Dhamma or Truth, we say that is here and now, and something we can see for ourselves. We can turn to it; we can incline towards the Truth. We can pay attention to the way it is, here and now, at this time and this place. That’s mindfulness - being alert and bringing attention to the way it is. Through mindfulness, we investigate the sense of self, this sense of me and mine: my body, my feelings, my memories, my thoughts, my views, my opinions, my house, my car and so on.
My tendency was self-disparagement so, for example, with the thought: ‘I am Sumedho,’ I’d think of myself in negative terms: ‘I’m no good.’ But listen, from where does that arise and where does it cease?...or, ‘I’m really better than you, I’m more highly attained. I’ve been living the Holy Life for a long time so I must be better than any of you!’ Where does THAT arise and cease?
When there is arrogance, conceit or self-disparagement - whatever it is - examine it; listen inwardly; ‘I am....’ Be aware and attentive to the space before you think it; then think it and notice the space that follows. Sustain your attention on that emptiness at the end and see how long you can hold your attention on it. See if you can hear a kind of ringing sound in the mind, the sound of silence, the primordial sound. When you concentrate your attention on that, you can reflect: ‘Is there any sense of self?’ You see that when you’re really empty - when there’s just clarity, alertness and attention - there’s no self. There’s no sense of me and mine. So, I go to that empty state and I contemplate Dhamma: I think, ‘This is just as it is. This body here is just this way.’ I can give it a name or not but right now, it’s just this way. It’s not Sumedho!
There’s no Buddhist monk in the emptiness. ‘Buddhist monk’ is merely a convention, appropriate to time and place. When people praise you and say, ‘How wonderful’, you can know it as someone giving praise without taking it personally. You know there’s no Buddhist monk there; it’s just Suchness. It’s just this way. If I want Amaravati to be a successful place and it is a great success, I’m happy. But if it all fails, if no one is interested, we can’t pay the electricity bill and everything falls apart - failure! But really, there’s no Amaravati. The idea of a person who is a Buddhist monk or a place called Amaravati - these are only conventions, not ultimate realities. Right now it’s just this way, just the way it’s supposed to be. One doesn’t carry the burden of such a place on one’s shoulders because one sees it as it really is and there’s no person to be involved in it. Whether it succeeds or fails is no longer important in the same way.
In emptiness, things are just what they are. When we are aware in this way, it doesn’t mean that we are indifferent to success or failure and that we don’t bother to do anything. We can apply ourselves. We know what we can do; we know what has to be done and we can do it in the right way. Then everything becomes Dhamma, the way it is. We do things because that is the right thing to be doing at this time and in this place rather than out of a sense of personal ambition or fear of failure.
The path to the cessation of suffering is the path of perfection. Perfection can be a rather daunting word because we feel very imperfect. As personalities, we wonder how we can dare to even entertain the possibility of being perfect. Human perfection is something no one ever talks about; it doesn’t seem at all possible to think of perfection in regard to being human. But an arahant is simply a human being who has perfected life, someone who has learned everything there is to learn through the basic law: ‘All that is subject to arising is subject to ceasing.’ An arahant does not need to know everything about everything; it is only necessary to know and fully understand this law.
We use Buddha wisdom to contemplate Dhamma, the way things are. We take Refuge in Sangha, in that which is doing good and refraining from doing evil. Sangha is one thing, a community. It’s not a group of individual personalities or different characters. The sense of being an individual person or a man or a woman is no longer important to us. This sense of Sangha is realised as a Refuge. There is that unity so that even though the manifestations are all individual, our realisation is the same. Through being awake, alert and no longer attached, we realise cessation and we abide in emptiness where we all merge. There’s no person there. People may arise and cease in the emptiness, but there’s no person. There’s just clarity, awareness, peacefulness and purity.
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APRIL 3, 2014

TAO














The word 'Tao' essentially means 'the Way'. Nothing can be said about the goal. The goal remains elusive, inexpressible, ineffable. But something can be said about the Way. Hence, Taoists have never used the word 'God', 'truth', NIRVANA, no; they simply use the word 'Way'. Buddha says, 'Buddhas can only show you the Way. If you follow the path, you will reach to the truth.' Truth will have to be your own experience. Nobody can define the truth, but the Way can be defined; the Way can be made clear. The Master cannot give you the truth, but the Master can give you the Way. And once the Way is there then all that is needed is to walk on it. That has to be done by the disciple.
I cannot walk for you, and I cannot eat for you. I cannot live for you, and I cannot die for you. These things have to be done by oneself. But I can show the Way, I have walked on the Way.
Tao simply means 'the Way'.
THAT WHICH EXISTS THROUGH ITSELF IS CALLED THE WAY.
And the definition is beautiful.
Lu-tsu says, 'That which exists by itself, that which needs nobody else's support, that which has always existed whether you walk on it or not...' Whether anybody walks on it or not does not matter, it always exists. In fact, the whole existence follows it unknowingly. If you can follow it knowingly your life will become a great blessing. If you follow it unknowingly, then you will go on stumbling, then you cannot enjoy it as it should be enjoyed.
A man can be brought into the garden, and he may be unconscious. He4 may be drunk or he may be in a coma or under the impact of chloroform. He can be brought into the garden. He is unconscious. The songs of the birds will be heard by his ears, but he will not know. And the fragrance of the flowers will come riding on the breeze to his nostrils, but he will not know. And the sun will shine on him and will shower light on him, but he will not know. And the breeze will caress him, but he will not know. And you can put him under the shade of a big tree and the coolness of it, but he will not know. That's how man is.
We ARE in Tao, because where else can we be? To live is to be on the Way. To live is to live in God. To breathe is to breathe in God. Where else can we be? But just as the fish lives in the ocean and is completely oblivious of the ocean, we are living in Tao and are completely oblivious of Tao. In fact, it is so obvious, that's why we are so oblivious. The fish knows the ocean so well... the fish is born in it, the fish has never been out of it, the fish takes it for granted, hence the fish is not aware of it. We are on the Way, we are in God, we live in Tao, through Tao, but we are not aware of it.
The Tao exists, because without the Tao trees will not grow, and stars will not move, and th- blood will not circulate, and the breath will not come in. Life will disappear.
Life is possible only if there is a fundamental law holding it. Life is possible only if there is something that supports it. Look at the immense order in existence. It is not a chaos, it is a cosmos. What makes it a cosmos? Why is there so much harmony? There must be a law that keeps the harmony going, flowing, keeps everything in accord. But we don't know about it. We don't know. anything about our own being, and we are joined through our being with Tao.
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